'उरूज' के स्टेज पर जब मक़सूद भाई ने क़दम रखा तो उनके चेहरे की शिकन और अल्फ़ाज़ो की तल्ख़ी बता रही थी कि उनके दिल में आने वाली नस्लों के लिए गहरी फ़िक्र और तड़प छुपी हुई है। उनकी निगाहों में एक मायूसी भी थी और इस उम्मत की तालीमी गफ़लत पर बेतहाशा बेचैनी भी।

वो जानते हैं कि आज का दौर सिर्फ़ इल्म का है और हमारी क़ौम इस मैदान में कितनी पीछे छूट चुकी है। उन्होंने कहा की हमारे घरों में दो-दो, तीन-तीन महंगी गाड़ियाँ खड़ी हैं, हमन बड़े-बड़े घर बना रहे है, हम महंगी और आलीशान शादियां कर रहे हैं मगर अफ़सोस की हम एक भी ऐसा इदारा नहीं बना पाए जहाँ हमारे बच्चे आज के दौर से आंख मिलाकर बात कर सकें। उनकी बातें महज़ सादा शिकवा नहीं थी बल्कि आईना थी जिसमें हमारी बेफिक्री और तालीम से ग़फ़लत साफ़ नज़र आ रही थी।

उनके लफ़्ज़ों में सिर्फ शिकायत नहीं एक पुकार थी, जो ज़मीरों को जगाने आई थी। उन्होंने बार-बार पोडियम पर हाथ मारे जैसे अल्फ़ाज़ अब उनके जज़्बात का बोझ उठाने में नाकाम हो गए हो और जब दिल का दर्द अल्फ़ाज़ के ज़रिये बाहर न निकले तो जिस्म खुद बोल उठता है और उस लम्हे में मक़सूद भाई का जिस्म बोल रहा था और कौम को झंझोड़ रहा था।

उन्होंने केरल के 100 एकड़ में बनी एजुकेशन सिटी का ज़िक्र किया जो क़ौमी बेदारी और दूरअंदेशी की एक बेहतरीन मिसाल है। उनकी तमन्ना है कि इंदौर में भी एक ऐसा तालीमी इदारा क़ायम हो लेकिन ये महज़ मक़सूद भाई का नहीं बल्कि हर उस शख्स का मक़सद होना चाहिए जो कौम का दर्द दिल में रखता है।

अगर अब भी हम बेपरवाह बने रहे और एक मज़बूत, मुकम्मल तालीमी कैंपस खड़ा न कर सके तो यक़ीन मानिए आने वाले कल में हमारे बच्चे मोहताज रह जाएंगे। 

उनका कहना था की अपनी एक गाड़ी कम करो, ज़मीन खरीदो और तालीमी इदारा बनाओ क्यूंकि वो इदारा सिर्फ़ एक इमारत नहीं बल्कि हमारी नस्लों का रोशन मुस्तकबिल होगा। तालीम से लबरेज़ एक नस्ल जो उस एक गाड़ी से कहीं ज़्यादा क़ीमती होगी जो सिर्फ़ सफ़र को आसान बनाती है जबकि तालीम पूरी ज़िंदगी के सफर को आसान बनाती है।

- ज़ाहिद खान